Wednesday, 26 September 2018

中国将设立新的顶层环保机构

邓小平被中国人称为中国实施改革开放和经济建设的总设计师。如今看来,习近平似乎有意成为中国生态文明建设的总设计师。

10月19日 ,在中国共产党第十九次全国代表大会(以下简称十九大)上,中共中央总书记习近平发表长达三个半小时的报告,并在其中将建设生态文明称作是中华民族永续发展的千年大计。他感慨:“人类对大自然的伤害最终会伤及人类自身,这是无法抗拒的规律”。

这样感性的话语在中共最高规格的代表大会上并不多见,可见生态环境在习近平“建设美丽中国”蓝图中的特殊地位。不过相比这句带有哲理的感慨,更为引人瞩目的是习近平还提出,为了“加强对生态文明建设的总体设计和组织领导”,将要设立新的,负责管理全国所有“自然资源资产”产权的机构,以及负责监管全国“自然生态”的机构

这意味着,新的中央机构将对分散在全国各地的矿藏、水流、森林、山岭、草原、荒地、海域、滩涂等各类自然资源统一行使所有权,负责全民所有自然资源的出让等。

生态文明建设为何需要新机构?

这并不是中共第一次产生设置顶层机构负责生态资产管理的想法。早在2015年9月发布的《生态文明体制改革总体方案》就提出设立新机构来监管自然资源资产。

这一举措之所以必要,是因为中国在资源、环境、生态方面有很多部门进行管理,有时缺乏对资源的统一考虑,从各自的领域出台很多具体的规定,反而出现混乱局面。

生态文明体制建设的亲历者和参与者、中央财经领导小组办公室副主任杨伟民此前告诉媒体,生态环境领域的改革,相对于其他方面的改革总体上滞后。其中一个原因,就是因为缺乏一个顶层设计。但环境污染的严重性等问题迫切需要对生态文明建设做出一个顶层设计。

利益冲突如何避免?

值得注意的是,中国的土地所有权分为全民所有和集体所有,而构建生态文明直接面临的问题之一就是,国家想要严格保护的土地中有一部分事实上属于集体,而非全民,这意味着国家可能需要与集体进行土地(和资源)的所有权置换。

这一局面在正在进行的国家公园试点中已经体现出来。中央政府的计划是,通过租赁、置换等方式,将国家公园内的集体产权土地转变为国有产权,再由专门机构管理。

但有意见认为,这样做可能导致地方把最好的资源划给中央后,却没有任何直接的补偿和收益,必然会增加中央与地方的矛盾。尽管方案专门提出强化生态补偿机制,但谁会是这种补偿的受益者,目前并不明确。

设立专门的机构管理全国所有自然资源资产,就是为了保障产权重新划定顺利完成。目前,这一改革已经在各国家公园试点项目内进行。国家林业局局长张建龙表示,2018年将完成试点区80%以上国有自然资源确权登记。

据新华社透露,2016年12月底中共中央就下定决心整顿全国自然资源的管理。在中央全面深化改革领导小组的会议上,一份《关于健全国家自然资源资产管理体制试点方案》提出,自然资源的所有者和管理者要分开,并且一个部门只能管理一件事。

这两大原则意味着目前的自然资源管理部门(如林业局、海洋局)将不再同时行使资产所有权,而需要专门设立一个新机构行使所有权。而这个机构同样不负责其他职能,如生态环境保护监管,而要再新设一个独立的新机构专门负责。

不过目前“设立国有自然资源资产管理和自然生态监管机构”的表述并不具体,还存在很大想像空间。根据中科院可持续发展战略研究组2015年的一份关于生态管理体制改革的报告,究竟是成立专门的自然资源资产管理委员会和监管委员会,还是在自然资源管理部门下设相对独立的自然资源资产管理局和监管局,中共中央尚未形成共识。
但据业内人士分析,无论如何,十九大之后中国将开展涉及多部门的多项职责调整,几年以来广受关注的部委改革将逐渐浮出水面。
“出台生态文明体制改革总体方案,目的就是要整合统一。” 杨伟民说。而整合统一,就需要对一些机构职责做出调整,“这会触及某些部门的奶酪”。

Tuesday, 18 September 2018

媒体札记:德国媒体如何报道波恩气候大会?

在波恩气候大会举行地德国,关于气候大会的新闻差点就淹没在美国总统亚洲访问,以及德国牙买加联盟谈判的新闻当中。

当然,COP23在德媒报道中也还是掀起了一些波澜。无论从可再生能源发展的角度,还是新的气候治理格局形成,中国都是德媒绕不开的话题:在特朗普宣布退出巴黎协定的背景下,中国能否在成为新的气候领导力量?在德国国内告别燃煤和告别内燃机的呼声中,中国在可再生能源和新能源汽车上的作为是否会成为德国的威胁?

新的领导力量?

对于中国是否愿意接棒气候治理的领导角色,《明镜》在线的《美国想如何智取中国》一文表示了质疑:“和奥巴马时期的美国相比,在准备了‘搭桥方案’的中国身上看到了更少的牺牲精神:他们强调自己作为发展中国家的身份,从而不愿意接受义务。”“没有强大的责任心和义务履行,中国就不可能在气候谈判中成为新的世界领导力量。”文章称。

这里其实牵扯到了两个阵营的矛盾:发达国家和发展中国家的信任危机。


《巴登报》《在环保问题上,发展中国家感觉被发达国家忽悠了谈的就是信任危机:“从大会的第一天开始,发展中国家和发达国家之间信任基础很薄弱的问题,就显露出来了。”

该文分析,“发展中国家不想为实现2020年目标有所行动,因为在此之前京都议定书仍起作用,该协议规定的是发达国家有义务行动。……伊朗和中国在第一次会议上就申请将盘点2020年前行动提上议程。”而斐济关于明年再讨论“2020年前的行动”的提议成了矛盾的导火索。

“一位印度外交官在接受采访时表示这个提议无法接受:这个提议意味着,印度,中国和其他发展国家必须执行更严格的气候政策。”

“来自环保组织地球之友的人员也强调,这个提议抹掉了发达国家和发展中国家的区别。”


这就意味着,“解开僵局的前提是,在2020年前,发达国家得有更多的行动。”编者注:由于发展中国家的抗争,本届气候峰会最终决议文本明确列出,2018年到2020年发达国家必须对气候资金和减排行动的进展做出一系列盘点和评估。

至于发达国家,德国媒体当然会拿德国开刀。“一方面,环境部长汉特克斯因在发言中说到德国会继续支付5千万欧元,用以帮助贫困国家应对气候变暖问题,从而赢得了掌声,另一方面,她不得不回答的问题是:德国会不会因为2020年的气候目标落空而有损声望?”

这不仅仅关乎声望,而关乎的是两个阵营里实际发生着的观望,较量,对抗。

对发展中国家批评最直接的当属《世界报》《
在环保上发展中国家做得太少》,该文如此讽刺中国:“中国在世界范围内大力收购大企业和矿产,在一带一路沿线国家和地区大力投资基础设施,但在气候大会上,这个超级大国还是更乐于把自己定位于新型工业化国家。”“发展中国家和新兴工业化国家在环保上除了在国际大会上就财政好处上讨价还价,还能做什么?很显然,做得太少。”

文中还引用了彭博新能源财经的数据来佐证。该财经新闻机构做了一项关于非经合组织国家2010年到2016年在清洁能源投资上的研究。研究表明,“从2010年到2015年,投资一直呈增长趋势,而巴黎协定之后, 2016年较前一年从1516亿美元减少到1114亿美元。” “而这减下来的四分之三是由中国减下来的。”当然该报道也承认,“其他非OECD国家的新能源投资也下降了25%。”看来2016年的新能源投资下滑是个普遍问题。

不过,在气候治理角色这一问题上,中国在德国媒体中也有积极的形象。

《汉诺威汇报》的一篇《中国,环保新先驱》中引用环境部长汉特克斯在气候大会上说的:“我们可以信赖中国。中国本身有兴趣和意愿走在前头。”并解读说:“这位女政治家有资格做出评判,她在任上曾几次访问中国。她清楚,中国在气候治理上的态度转变来自于自身的兴趣和利益。”


研究机构Helmholtz对在气候大会现场观察的生态环境专家施瓦策(Reimund Schwarze)进行了采访,在被问到对中国是否有意接手引领角色的观察时,施瓦策点出了中国的两难处境:“从最近的报道中可以看到,2017年全球二氧化碳的排放量增长,很大程度上,中国脱不了干系。这并不意味着中国对环保不重视,相反,中国在谈判中表现得相当有建设性。中国对没能达到其气候目标给出的原因,和德国十分相似:实现起来极其难,而且不能以牺牲经济增长为代价。两个国家都想有所为,却都没有做出具体的允诺。”

新的威胁力量?

另一个话题就是中国在新能源领域里的崛起,这令德国倍感焦虑。

《焦点》杂志《波恩气候大会决定气候政策是否还会赢得我们的信任》解析目前德国的局面:“一方面没有谁知道牙买加联盟谈判终结之后德国会出台怎样的气候政策,另一方面,德国没办法完成2020年的气候目标,人人皆知。”

在这样一个背景下,能源领域里的德国式焦虑集中在是否告别燃煤和告别内燃机,而德国媒体在批评德国气候和能源政策时,举的例证就是中国:中国在可再生能源和新能源汽车方面的作为,将德国远远甩在了后头 。


德国之声《中国:从气候罪人到气候拯救者?》报道对中国和德国进行了对比:“去年中国对可再生能源的投资大约为780亿美元,而德国为130亿美元。到2020年,中国将投入3610亿美元,在世界范围内独自遥遥领先。”

德国电视二台( )则用“中国的绿色野心”来描述中国的太阳能发展进程和规模。

但事实不止于一面。德国之声的《中国,被高估的气候冠军?》指出了中国新能源发展的另一面:“中国从2015年到2016年太阳能发电增长超过80%,但太阳能发电占总发电量的比例不过1%,风力发电的情况也相似:18%的增长率,却占总发电量的4%。而火力发电占总发电的比率超过65%。”

一方面是中国在可再生能源领域大刀阔斧的行动,另一方面在巨大的能源消耗和温室气体排放面前,其不过是杯水车薪。所谓既充满希望,也充满尴尬。但也正因为如此,中国亦如房间里的大象,不容忽视。

Thursday, 13 September 2018

और उन्नति के शिफ़्ट इंचार्ज और एमडी से संपर्

और उन्नति के शिफ़्ट इंचार्ज और एमडी से संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन सभी का मोबाइल फ़ोन फिलहाल बंद है.
वहां से निकलते वक्त जो पिता बेटे की मौत पर गमगीन बैठे हुए थे, उन्होंने करीब आकर कहा कि उनके साथ जो हुआ वो नहीं चाहते कि किसी और के साथ ऐसा हो.
वो कहते हैं, ''हमें कुछ नहीं चाहिए हमें सिर्फ इंसाफ़ चाहिए. ये मौत, मौत नहीं हत्या है जो लापरवाही की वजह से हुई है.''

ग़ैर-सरकारी संस्था प्रैक्सिस ने एक रिपोर्ट के हवाले से कहा है कि हर साल दिल्ली में करीब 100 सीवर कर्मचारियों की काम के दौरान ज़हरीली गैसों की वजह से मौत हो जाती है.
वर्ष 2017 जुलाई-अगस्त के मात्र 35 दिनों में 10 सीवर कर्मचारियों की मौत हो गई थी. सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के मुताबिक, उसने 1993 से अब तक पूरे भारत में हुईं करीब 1500 मौतों के दस्तावेज़ जुटाए हैं लेकिन असल संख्या कहीं ज़्यादा बताई जाती है.
आज अगर लोगों के सामने फ़िरोज़ गांधी का ज़िक्र किया जाए तो ज़्यादातर लोगों के मुंह से यही निकलेगा- 'फ़िरोज़ गाँधी कौन?'
बहुत कम लोग फ़िर इस बात को याद कर पाएंगे कि फ़िरोज़ गांधी न सिर्फ़ जवाहरलाल नेहरू के दामाद, इंदिरा गांधी के पति और राजीव और संजय गाँधी के पिता थे.
फ़िरोज़ - द फ़ॉरगॉटेन गाँधी के लेखक बर्टिल फ़ाल्क, जो इस समय दक्षिणी स्वीडन के एक गाँव में रह रहे हैं, बताते हैं, "जब मैंने 1977 में इंदिरा गांधी का इंटरव्यू किया तो मैंने देखा उनके दो पुत्र और एक पौत्र और पौत्री थे. मैंने अपने आप से पूछा, 'इनका पति और इनके बच्चों का बाप कहाँ हैं?"
जब मैंने लोगों से ये सवाल किया, तो उन्होंने मुझे बताया कि उनका नाम फ़िरोज़ था, और उनकी कोई ख़ास भूमिका नहीं थी. लेकिन जब मैंने और खोज की जो मुझे पता चला कि वो न सिर्फ़ भारतीय संसद के एक अहम सदस्य थे, बल्कि उन्होंने भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने का बीड़ा उठाया था.
मेरे विचार से उनको बहुत अनुचित तरीके से इतिहास के हाशिए में ढ़केल दिया गया था. इस जीवनी के लिखने का एक कारण और था कि कोई दूसरा ऐसा नहीं कर रहा था.
दुनिया में ऐसा कौन सा शख़्स होगा जिसका ससुर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का पहला प्रधानमंत्री हो और बाद में उसकी पत्नी और उसका पुत्र भी इस देश का प्रधानमंत्री बना हो.
नेहरू परिवार पर नज़दीकी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं, "इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले 1960 में फ़िरोज का निधन हो गया और वो एक तरह से गुमनामी में चले गए. लोकतंत्र में ऐसे बहुत कम शख़्स होंगे जो खुद एक सांसद हों, जिनके ससुर देश के प्रधानमंत्री बने, जिनकी पत्नी देश की प्रधानमत्री बनीं और उनका बेटा भी प्रधानमंत्री बना."
"इसके अलावा उनके परिवार से जुड़ी हुई मेनका गाँधी केंद्रीय मंत्री हैं, वरुण गाँधी सांसद हैं और राहुल गाँधी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. इन सबने लोकतंत्र में इतनी बड़ी लोकप्रियता पाई. तानाशाही और बादशाहत में तो ऐसा होता है लेकिन लोकतंत्र में जहाँ जनता लोगों को चुनती हो, ऐसा बहुत कम होता है. जिस नेहरू गांधी डाएनेस्टी की बात की जाती है, उसमें फ़िरोज़ का बहुत बड़ा योगदान था, जिसका कोई ज़िक्र नहीं होता और जिस पर कोई किताबें या लेख नहीं लिखे जाते."
फ़िरोज़ गांधी का आनंद भवन में प्रवेश इंदिरा गांधी की माँ कमला नेहरू के ज़रिए हुआ था. एक बार कमला नेहरू इलाहाबाद के गवर्नमेंट कालेज में धरने पर बैठी हुई थीं. बर्टिल फ़ाक बताते हैं, "जब कमला ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ नारे लगा रही थीं, तो फ़िरोज़ गाँधी कालेज की दीवार पर बैठ कर ये नज़ारा देख रहे थे. वो बहुत गर्म दिन था. अचानक कमला नेहरू बेहोश हो गईं."
"फ़िरोज़ दीवार से नीचे कूदे और कमला के पास दौड़ कर पहुंच गए. सब छात्र कमला को उठा कर एक पेड़ के नीचे ले गए. पानी मंगवाया गया और कमला के सिर पर गीला कपड़ा रखा गया. कोई दौड़ कर एक पंखा ले आया और फ़िरोज़ उनके चेहरे पर पंखा करने लगे. जब कमला को होश आया, तो वो सब कमला को ले कर आनंद भवन गए. इसके बाद कमला नेहरू जहाँ जाती, फ़िरोज़ गांधी उनके साथ ज़रूर जाते."
इसकी वजह से फ़िरोज़ और कमला के बारे में अफ़वाहें फैलने लगीं. कुछ शरारती लोगों ने इलाहाबाद में इनके बारे में पोस्टर भी लगा दिए. जेल में बंद जवाहरलाल नेहरू ने इस बारे में खोजबीन के लिए रफ़ी अहमद किदवई को इलाहाबाद भेजा.
किदवई ने इस पूरे प्रकरण को पूरी तरह से बेबुनियाद पाया. बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि एक बार स्वतंत्र पार्टी के नेता मीनू मसानी ने उन्हें एक रोचक किस्सा सुनाया था. "तीस के दशक में मीनू मसानी आनंद भवन में मेहमान थे. वो नाश्ता कर रहे थे कि अचानक नेहरू ने उनकी तरफ़ मुड़ कर कहा था, मानू क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई मेरी पत्नी के प्रेम में भी फंस सकता है? मीनू ने तपाक से जवाब दिया, मैं ख़ुद उनके प्रेम में पड़ सकता हूँ. इस पर कमला तो मुस्कराने लगीं, लेकिन नेहरू का चेहरा गुस्से से लाल हो गया."
बहरहाल फ़िरोज़ का नेहरू परिवार के साथ उठना बैठना इतना बढ़ गया कि ये बात उनकी माँ रतिमाई गांधी को बुरी लगने लगी. बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि जब महात्मा गाँधी मोतीलाल नेहरू के अंतिम संस्कार में भाग लेने इलाहाबाद आए तो रतीमाई उनके पास गईं और उनसे गुजराती में बोलीं कि वो फ़िरोज़ को समझाएं कि वो ख़तरनाक कामों में हिस्सा न ले कर अपना जीवन बरबाद न करें. गांधी ने उनको जवाब दिया, "बहन अगर मेरे पास फ़िरोज़ जैसे सात लड़के हो जाए तो मैं सात दिनों में भारत को स्वराज दिला सकता हूँ."
1942 में तमाम विरोध के बावजूद इंदिरा और फ़िरोज़ का विवाह हुआ. लेकिन साल भर के अंदर ही दोनों के बीच मतभेद होने शुरू हो गए. इंदिरा गाँधी ने फ़िरोज़ के बजाए अपने अपने पिता के साथ रहना शुरू कर दिया.. इस बीच फ़िरोज़ का नाम कई महिलाओं के साथ जोड़ा जाने लगा.
रशीद किदवई बताते हैं, "इसमें उनके एकाकीपन की भूमिका ज़रूर रही होगी, क्योंकि इंदिरा गांधी दिल्ली में रहती थीं, फ़िरोज़ लखनऊ में रहते थे. दोनों के बीच एक आदर्श पति पत्नी का संबंध कभी नहीं पनप पाया. फ़िरोज़ गांधी स्मार्ट थे. बोलते बहुत अच्छा थे. उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत अच्छा था. इसलिए महिलाएं उनकी तरफ़ खिंची चली आती थी. नेहरू परिवार की भी एक लड़की के साथ जो नेशनल हेरल्ड में काम करती थी, उनके संबंधों की अफवाह उड़ी."